कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम् ए और डॉक्टरेट, लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से अर्थशास्त्र में मास्टर ऑफ़ साइंस और डॉकटरे़ट और ग्रेस इन से बेरिस्टर एट ला जैसी डिग्रियां हासिल करना एक भारतीय के लिए आज भी एक बहुत बड़ा सपना है पर बात तब और भी दिलचस्प हो जाती है जब हम देखे की ये डिग्री किसी सम्भ्रांत भारतीय ने नहीं बल्कि ब्रिटिशकालीन भारत में यहाँ के निवासियों द्वारा अछूत कही जाने वाली जाति के एक होनहार और संघर्षशील युवक ने हासिल की.
वैसे इस उच्च शिक्षा का एक और पहलु भी है जो इसे हासिल करने वाले विद्यार्थी डॉ भीमराव आंबेडकर को बाकि विद्यार्थियों से अलग करता हैं , वह है उनका इस शिक्षा को प्राप्त करने का उद्देश्य. जाहिर सी बात है कि शिक्षा का सीधा सम्बन्ध करियर से है यानि जितनी अच्छी शिक्षा उतनी ही अच्छी नौकरी पर डॉ आंबेडकर के लिए शिक्षा का अर्थ कुछ अलग था. उन्होंने शिक्षा को ज्ञान का माध्यम पाया और ज्ञान को मानव की मुक्ति का.
स्पष्ट है कि भारत की स्थापित संस्कृति में मानव को कभी भी मानव नहीं बल्कि उसे एक जाति के रूप में ही आँका गया है. हिन्दुओं के सर्वाधिक पुराने कहे जाने वाले धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद में मानव समाज को ऊंच-नीच के आधार पर चार भाग – ब्राह्मण(पुरोहित), क्षत्रिय(राजपाट और सैन्य सञ्चालन), वैश्य(व्यापारी) और शूद्र (अन्य पिछड़ा वर्ग) में बांटा गया था जिसने कालान्तर में एक नए वर्ग ‘अछूत’ को जन्म दिया, जिनके साथ उच्च वर्ग के भारतीयों ने गुलाम से भी बदतर व्यवहार किया. एक समय था कि अछूत को शिक्षा और अन्य मानवीय हक़ तो दूर उन्हें सार्वजानिक स्थानों पर भी आने का अधिकार नहीं था.
पेशवाकाल में अछूत यानि दलितों को सड़क पर चलते समय अपनी कमर पर झाडू लटका कर रखना पड़ता था ताकि उनके पदचिन्ह साफ़ हो सके और तो और कई स्थानों पर दलितों को केवल रात में निकलने की इजाज़त थी क्योंकि दिन में धूप से पड़ने वाली परछाई तक से भी सवर्ण समाज को छूत लगने का खतरा लगता था.
भारतीय समाज जब इतना जड़ हो चुका था उसी वक़्त यहाँ ब्रिटिशों का आना हुआ जो भारत में मूलतः व्यापार करने के लिये आये थे पर वे इसे सही ढंग से संचालित करने के लिए यहाँ शासन करने की योजना बनाने लगे. अँगरेज़ निश्चित ही सैन्य उपकरणों में भारतीय राजाओं से बेहतर थे पर उनके पास सेना का अभाव था, ऐसे में उन्हें हिन्दू समाज द्वारा सताए गए दलितों की बड़ी आसानी से मदद मिल गयी जो बड़ी संख्या के अंग्रेजो की फौज में शामिल हो गए.
अंग्रेजी शस्त्र और जांबाज़ दलितों के आगे हिन्दू राजा और उनकी सवर्ण सेना बिलकुल भी नहीं टिक पाई और तब भारत के एक बड़े भाग में अंग्रेजो का अधिकार हो गया. इतिहास गवाह है कि दुसाध, चमार, महार, मांग और दक्षिण भारत की पर्रिया जाति के बल पर ही अंग्रेजो ने इस देश पर सत्ता हासिल की थी.
हालाँकि अंग्रेजी राज स्थापित हो जाने के बाद ऐसा नहीं कि दलितों को उनकी इस बहादुरी के बदले न्याय मिल गया पर इसमें भी कोई शक नहीं कि अंग्रेजी राज्य में उन्हें अपने पारंपरिक पेशे सफाई करना और हिन्दुओं की सेवा के लिए हरदम समर्पित रहने से जरूर कुछ हद तक मुक्ति मिलना शुरू हुआ क्योंकि के वे अब सेना में शामिल किये जाने लगे.
अंगेरजी सेना में भर्ती होने वाले दलितों के बच्चो के लिए शिक्षा बड़ी सुलभ हो गयी क्योंकि अंग्रेजी सेना के नियम के अनुसार हरेक सैनिक को उसके बच्चे को पढ़ना अनिवार्य था. डॉ आंबेडकर को प्राथमिक शिक्षा इसी आधार पर मिल पायी क्योंकि उनके पिताजी रामजी संकपाल सेना में सूबेदार मेजर थे हालाँकि यहाँ पर यह बात काबिलेगौर है कि मध्यप्रदेश की महू छावनी में जन्म के कुछ ही महीनो बाद उनका परिवार दापोली और फिर सतारा में बस गया था जहाँ उनके पिताजी सेना से रिटायरमेंट के बाद स्टोरकीपर की नौकरी करने लगे थे.
बालक भीम को यहाँ पहली बार छुआछूत का सामना करना पड़ा क्योंकि अब तक तो वे सैन्य छावनी में रहे थे जहाँ अंग्रेजो के प्रभाव के कारण छुआछूत का पालन नहीं हो पाता था, पर यहाँ सतारा में कोई भी नाई उनके बाल नहीं काटता था, स्कूल में उन्हें सभी बच्चो से अलग बैठना पड़ता था और यहाँ तक की उन्हें कितनी भी प्यास क्यों न लगी हो उन्हें स्कूल के घड़े से पानी पीने तक का भी अधिकार नहीं था.
हाँ यदि कोई चपरासी दया करके लोटे से भीम के हाथो में पानी डाल दे तभी वे अपनी प्यास मिटा पाते थे और रही बात बाल काटने की तो यह उनकी बड़ी बहन कर दिया करती थी.
एक बार वे अपने भाई आनंदराव के साथ रेलवे स्टशन से गोरेगांव जा रहे थे रास्ता लम्बा था इसलिए उन्होंने कोई गाड़ी करने की कोशिश की पर जैसे ही गाड़ीवालो को इन बच्चो की जाति का पता लगा तो उन्होंने बालक भीम और आनंदराव को अपनी गाड़ी पर बैठाने से मना कर दिया. बहुत मनुव्वल के बाद किसी तरह एक गाडी वाला दुगने किराये पर उन्हें ले जाने के लिए इस शर्त पर तैयार हुआ कि वह खुद गाड़ी पर नहीं बैठेगा.
स्कूल में भीम जब संस्कृत पढना चाहते थे तो उन्हें दलित होने के कारण मना कर दिया गया. बचपन में जातीय हिन्दुओ से सहे इन भेदभाव ने भीम के मन में गहरे दाग बना दिए पर वे इन्हें प्रेरणा के रूप में लेते हुए सारा ध्यान अपनी पढाई पर केन्द्रित हुए अपने लक्ष्य की और बढ़ते रहे हालाँकि ऐसा नहीं कि भीम शुरुआत से ही पढाई के लिए बहुत गंभीर थे बल्कि वे बचपन में तो कूद-फांद, मार-पीट और खेलकूद ही उनके शौक हुआ करते थे एक बार तो उन्होंने घर के बटुए से पैसे चुरा कर बॉम्बे जाने की योजना भी बना डाली थी पर शीघ्र ही उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझते हुए सारा ध्यान पढाई पर केन्द्रित कर दिया जो जीवन भर कायम रहा.
हालाँकि डॉ आंबेडकर के सामने कोई कम मुसीबत नहीं आई 1904 में उनके पिताजी की नौकरी छूट गई नतीजतन उन्हें काम की तलाश में बॉम्बे आना पड़ा. इस समय पैसो की कमी का इतना सामना करना पड़ा की मजबूर हो कर रामजी संकपाल को उनके दोनों बच्चों में से किसी एक ही बच्चे की पढाई जारी रख सकते थे. इस परिस्थिति में उन्होंने भीम यानि डॉ आंबेडकर को ही चुना और उनके बड़े भाई बलराम को फैक्ट्री में नौकरी करना पड़ा.
भीम ने एल्फिन्स्टन हाई स्कूल में प्रवेश लिया जहाँ पर सभी जातीय हिन्दू छात्र थे जिनमे जातिवाद की भावना इतनी गहरी थी कि यहाँ भी बाबासाहब को अकेलेपन का ही सामना करना पड़ा पर यहाँ भी उन्होंने बिना परेशान हुए किताबों को अपना दोस्त बना लिया और वे उनकी पढाई में इतनी गहरी दिलचस्पी लेने लगे कि रोज़ खाली समय में पास के एक पार्क में जाकर पढाई करने लगे.
बाबासाहब को इतने लगन से पढ़ता देख पार्क में घुमने आने वाले एक प्रगतिशील व्यक्ति कृष्ण केलुस्कर इतना प्रभावित हुए कि वे अपने आपको रोक नहीं पाए और बाबासाहेब के पास पहुच कर उनसे बातचीत की तथा उन्हें न सिर्फ पढाई के लिए मार्गदर्शन दिया बल्कि आगे चलकर उनके लिए स्कोलरशिप की व्यवस्था करवा कर विदेश से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया.
इसी दौरान तत्कालीन समाज में प्रचिलित परंपरा के अनुसार 1905 में डॉ आंबेडकर का विवाह रमाबाई से हुआ. इस समय भीम की उम्र महज़ चौदह वर्ष थी जबकि रमाबाई केवल नौ साल की. 1912 में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम यशवंत रखा गया. 1913 से 1924 के बीच में उनके चार और बच्चे – रमेश, गंगाधर, इंदु और राजरत्न हुए पर यशवंत के अलावा इनमे कोई भी नहीं जी पाया क्योंकि बाबासाहेब पैसो के अभाव में उनका इलाज नहीं करवा सके थे.
गौरतलब है कि परिवार को चलाने में रमाबाई ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अक्सर बच्चों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी भी उन्हें अकेले ही निभानी पड़ी क्योंकि डॉ आंबेडकर के अध्ययन का एक लंबा समय विदेश तथा सार्वजानिक जीवन में गया. 26 मई 1935 को चालीस वर्ष की उम्र में रमाबाई का भी देहांत हो गया क्योंकि पैसो के अभाव में बाबासाहेब उनका भी सही इलाज नहीं करवा सके थे.
अब डॉ आंबेडकर के छात्र जीवन में वापस देखे तो 1907 में उन्होंने मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की उस समय दलित वर्ग से किसी का मेट्रिक उत्तीर्ण होना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. अतः बाबासाहब के सम्मान के लिये एक कार्यक्रम रखा गया पर इस परिणाम का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ की श्री केलुस्कर डॉ आंबेडकर के कॉलेज की पढाई के बड़ोदा राज्य के प्रगतिशील राजा सयाजीराव गायकवाड से बाबासाहब के लिए स्कोलरशिप की व्यवस्था करवा दी जिससे उन्हें बी ए की पढाई करने में सहुलियत हुई. हालाँकि बी ए डिग्री बाबासाहब ने मामूली अंको से ही पास की थी , जिसका कारण सिर्फ एक था की बाबासाहब ने स्कूली पढाई से ज्यादा महत्व अन्य उपयोगी किताबों को पढने में दिया था उनका स्पष्ट मानना था कि पाठ्यक्रम की अपनी सीमा होती है, पर ज्ञान असीमित होता है जिसे प्राप्त करने के लिए कोर्स से बाहर पढ़ना बहुत जरुरी है.
अपनी ग्रेड्युएट डिग्री के लिए बडौदा नरेश द्वारा स्कोलरशिप उपलब्ध करवाने के लिए कृतज्ञतास्वरूप बाबासाहेब ने बडौदा में अपने पिताजी के विरोध और लाख समझाइश के बावजूद भी नौकरी करने की ठानी पर गुजरात के जातिवादी माहौल में उन्हें बहुत तकलीफ झेलनी पड़ी उन्हें न तो रहने के कोई स्थान मिल पा रह था न ही उन्हें कोई विभाग अपने यहाँ काम देने के लिए तैयार था.
ऐसे में उन्हें रहने के लिए शहर से दूर दलित बस्ती में रहने की व्यवस्था करनी पड़ी इसी बीच उन्हें खबर मिली की उनके पिताजी बहुत बीमार है तो वे तत्काल बॉम्बे की ओर लौटे. पिताजी तो मानो पिताजी तो मानो उनके लिए ही रुके थे भीम से मिलते ही उन्होंने प्राण त्याग दिए. अब गुजरात लौटने के बजाय उन्होंने महाराज बडौदा से मिलने की ज़रूरत समझी. महाराज ने ध्यानपूर्वक बात सुनकर भीम की अच्छी अंग्रेजी, सलीके ओर जज्बे से प्रभावित होकर उनके लिए विदेश में पढाई के लिए पढाई पूरी हो जाने के बाद बडौदा राज्य में नौकरी करने के अनुबंध के साथ छात्रवृत्ति उपलब्ध करा दी.
भीम के लिए यह एक स्वर्णिम अवसर था. जात-पांत तो विदेश में होती नहीं सो पहली बार बाबासाहब को कोई अध्यन केंद्र और सहपाठी जातिवाद से मुक्त मिले यह उनके लिए एकदम नया अनुभव था हालाँकि उनके पास इसका लुत्फ़ उठाने के लिए बिलकुल वक़्त नहीं था. जिसका लाभ उन्होंने बहुत निष्ठा और ईमानदारी के साथ उठाया. उन्होंने एक-एक पल का बड़ी सावधानी से उपयोग किया. वे लायब्ररी में सबसे पहले पहुचते थे पर सबसे बाद में बाहर निकलते थे. यहाँ तक कि वे खाना खाने के लिए भी बाहर नहीं आते थे और वहीँ छुपकर ब्रेड का टुकड़ा खा लिया करते थे.
जो न सिर्फ समय बचाने में उनकी मदद करता था बल्कि पैसो को बचाने में भी. वे लगातार 18 घंटे तक पढ़ा करते थे यह आदत जीवन भर कायम रही. हालाँकि यह सच है की उनकी छात्रवृत्ति की राशि से उनकी पढाई अच्छे से हो सकती थी पर बाबासाहेब को इसमें से पैसे बचा कर अपने परिवार के लिए भी भिजवाना भी जरुरी था. इस समय उनके परिवार का गुजारा उनके बड़े भाई की मजदूरी और बाबासाहेब द्वारा भेजे पैसो से हुआ करता था जो परिवार चलाने के लिए नाकाफी था इसलिए उनकी पत्नी रमाबाई को बाहर जाकर का काम करना पड़ता था. इस तरह से न्यूयोर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय से उन्होंने एम् ए और पीएच. डी. की डिग्री हासिल की.
बाबासाहेब इससे भी अधिक पढना चाहते थे इसलिए वे आगे की पढाई करने के उद्देश्य से लन्दन गए हालाँकि इस समय उनके पास बिलकुल भी पैसे नहीं थे और उनकी छात्रवृत्ति की अवधि भी समाप्त हो चुकी थी. उन्होंने किसी तरह लन्दन पहुचने की व्यवस्था की, वे बडौदा नरेश को छात्रवृत्ति बढाने की अर्जी पहले ही दे चुके थे जिसे महाराज ने सहर्ष स्वीकार कर लिया अब बाबासाहब ने लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में में एम् एस सी और डॉक्टरेट के प्रवेश लिया तथा ग्रेस इन में बेरिस्टर एट ला के लिए. एक साल के भीतर ही उन्होंने शोध प्रस्ताव तैयार कर दिया पर छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त होने से उन्हें भारत लौटना पड़ा.
यहाँ अनुबंध के आधार पर वह बडौदा राज्य में नौकरी के लिए गए पर यहाँ तो उनके पहुँचने से पहले ही उनके दलित होने की खबर पहुँच चुकी थी. कोई भू उन्हें किराये से कमरा देने के लिए तैयार नहीं था. ऑफिस के चपरासी सहित सभी कर्मचारी उनसे छूआछूत करते थे. चपरासी भी उन्हें फाइल देने में परहेज करता था और वह फाइल को मेज पर पटक के चले जाया करता था. वे ऑफिस के मटके का पानी नहीं पी सकते थे. रहने के लिए तो कोई स्थान ही नहीं मिल प् रहा था मजबूरन उन्हें नाम बदलकर पारसी गेस्ट हाउस में रुकना पड़ा पर यह भेद भी ज्यादा दिन नहीं चल पाया और पारसियों का एक झुण्ड लाठी लेकर उन्हें पीटने के आ धमका तब बड़ी मुश्किल से बाबासाहब उन्हें समझाबुझा कर अपना सामान लेकर बाहर आ गए.
गौरतलब है की यदि यह झुण्ड हिन्दुओं का होता तो उस दिन बाबासाहब की जान नहीं बच पाती. अब बाबासाहब पूरी तरह बेघर थे वे एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ कर फूट-फूट कर रोने लगे. उन्हें कही से भी कोई आसरा नहीं मिल पा रहा था, मजबूरन उन्हें वापस मुंबई लौटना पड़ा.
उस ज़माने में जब तीसरी -चौथी क्लास पास को बहुत बड़ा शिक्षित माना जाता था, बाबासाहब उत्कृष्ट विदेशी संस्थानों से तमाम डिग्रिया हासिल करने और एकदम काबिल होने के बाद भी बेरोजगार थे. उन्होंने बहुत जगह कोशिश की पर हर जगह से उन्हें केवल इस आधार पर मना किया जाता था की वह एक दलित थे. वे पूरे डेढ़ साल तक बेरोजगार रहे.

इस दौरान वे घर से एक कप चाय पीकर नौकरी की तलाश में निकल जाया करते थे पर उन्हें कोई काम नहीं मिल पाया. कुछ दिनों के लिए उन्हें एक प्राइवेट कंपनी ने सलाहकार के रूप में काम मिला जिसे उन्होंने बखूबी निभा कर उस फर्म को लाभ भी दिलाया पर जैसे ही मालिकों को पता चला कि उनका सलाहकार एक दलित है उन्होंने डॉ आंबेडकर को नौकरी से निकाल दिया.
आख़िरकार उन्हें सेदेंहम कॉलेज में दो साल के लिए प्रोफ़ेसर की नौकरी मिल गयी पर चूँकि उनका उद्देश्य नौकरी करना तो था नहीं सो वे अपनी तनख्वाह से पैसे बचाकर और कोल्हापुर के राजा से 1500 रुपये का सहयोग लेकर अपनी पढाई पूरी करने के लिए लन्दन चल दिए जहाँ उन्होंने तीन साल के भीतर एम् एस सी और डीएससी की उपाधि हासिल कर ली. 1923 में उन्हें ‘उनके शोध प्रबंध ”प्रॉब्लम ऑफ़ रुपी” के लिए डॉक्टरेट मिल गयी.
भारत पहुँच कर उन्होंने अपने आप को सार्वजानिक जीवन के लिए समर्पित कर दिया 9 मार्च 1924 को उन्होंने दलितों को संगठित करने और उनकी मांगो को शासन तक पहुचने के उद्देश्य से बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया.
जिसके माध्यम से उन्होंने शासन के सामने दलितो की व्यथा रखने की सफल कोशिश की इस समय उनकी आजीविका का सहारा कोर्ट में वकालत ही थी. उनका यह अभियान काफी सफल रहा और डॉ आंबेडकर की बढ़ती लोकप्रियता और जज्बे को देखकर 1926 में बॉम्बे लेजिस्लेटिव कौंसिल में मनोनीत किया गया अब बाबासाहब के लिए कार्य करना और आसान हो गया. उन्होंने इस काम में अनेक प्रगतिवादी गैर-दलितों का भी सहयोग लिया. उनका स्पष्ट मानना था की वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं किसी जाति विशेष के नहीं और ब्राहमणवाद को परिभाषित करते हुए वे कहते थे की इसका अर्थ ऊँच-नीच और अंधविश्वास का होना है जो किसी भी समुदाय में हो सकता है.
19-20 मार्च 1927 को बाबासाहेब ने पानी पीने के अधिकार के लिए कोलाबा जिले के महाद में स्थित चवदार तालाब में अपने हजारो समर्थको के साथ संघर्ष का आगाज़ किया. पर बाबासाहब जैसे ही अपने रेस्ट हाउस में पहुचे की जातीय हिन्दुओ ने दलितों पर लाठियों और पत्थरो से हमला कर दिया जिसमे बड़ी संख्या में लोग शिकार हुए. हमलावर हिन्दुओं ने महिलाओ और बच्चो को तक नहीं बख्शा.
दलितों ने बड़ी दृढ़ता से सामना किया बाबासाहब को जैसे ही यह पता चला वे तुरंत अपनी जान की परवाह न करते हुए वहा पहुँच गए तभी जांबाज़ दलितों की दृढ़ता देखकर जातीय हिन्दुओ को वापस होना पड़ा, बाबासाहब ने पुलिस में केस दर्ज करा कर पानी पीने के बुनियादी हक़ के लिए न्यायलय में चुनौती दी. वहीँ हिन्दुओ ने तालाब में गाय का मूत्र और गोबर डालकर हिन्दू धार्मिक विधि के साथ तालाब के पानी की शुद्धि की क्योंकि उनके धर्म के अनुसार वह तालाब बाबासाहब और उनके समर्थकों के हाथों से छुए जाने के कारण अशुद्ध हो गया था.
बाबासाहेब ने हार नहीं मानी और कोर्ट में केस दायर किया अंततः 17 मार्च 1937 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने दलितों के पक्ष में फैसला दिया और हिन्दुओ के पक्ष को अमानवीय करार दिया. अब बाबासाहेब की राजनैतिक हैसियत काफी बढ़ चुकी थी और वे राष्ट्रीय स्तर पर वे एक दलित नेता के रूप में प्रसिद्धि पा चुके थे और उन्हें ब्रिटिश शासन ने दलितों का पक्ष रखने के लिए लन्दन की गोलमेज सभाओं में आमंत्रित किया. यही पहला अवसर था जब सार्वजानिक मंच पर पहली बार 1932 में उनकी गाँधी जी के साथ तीखी तकरार हुई क्योंकि गाँधी का मानना था दलित, हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है इसलिए उन्हें किसी भी प्रकार से कोई दावा पेश करने का कोई हक़ नहीं जबकि बाबासाहेब अंग्रेजो को अपने तर्कों और तथ्यों से अवगत कराकर यह सिद्ध कर चुके थे कि दलित, हिंदुओं से अलग एक वर्ग है जो हिन्दुओं के शोषण का शिकार हैं.
ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने बाबासाहब के दावे में सच्चाई पाई और दलितों के लिए राजनीति में आरक्षण की व्यवस्था की मांग को सहर्ष मांग लिया. पर इस बात से गांधीजी के अहम् तो चोट पहुंची और उन्हें डर लगा कि यदि आरक्षण की यह व्यवस्था लागू हो गयी तो सारे दलित धीरे-धीरे हिन्दू धर्म से मुक्त हो जायेंगे. इसलिए उन्होंने इस फैसले के खिलाफ आमरण अनशन शुरू कर दिया उस समय डॉ आंबेडकर पर इतना दबाव बनाया गया कि मजबूर हो कर उन्हें गाँधी से समझौता करना पड़ा और पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग को छोड़ना पड़ा.


डॉ आंबेडकर अपने दैनिक जीवन के अनुभव और इससे भी अधिक हिन्दू धर्मं ग्रंथो के तार्किक अध्ययन से यह बखूबी जान चुके थे कि वास्तव में हिन्दू कोई धर्म नहीं बल्कि दलितों, पिछडो और महिलाओं को गुलाम बनाएँ रखने का एक राजनीतिक दर्शन है इसीलिए वे चवदार तालाब के संघर्ष के दौरान ही मनुस्मृति का दहन भी कर चुके थे. पर वे इस सच्चाई से भली भांति अवगत थे की दलित समेत सभी प्रभावित तबका हिन्दू धर्म के ही चंगुल में हैं. तब उन्होंने दलितों को उनके हिन्दू धर्म मानते हुए भी धार्मिक अधिकारों से वंचित होने के मुद्दे पर ध्यान आकर्षित कराने के लिए दलितों को मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलित किया पर यह कदम भी हिन्दुओ को बिलकुल रास नहीं आया और उन्होंने बाबासाहेब और अन्य दलितों पर पथराव किया जिसमे बाबासाहब सहित सभी समर्थको को चोट आई.
बाबासाहब ने दलितों को हिन्दू संस्कृति में स्थान दिलवाने के एक अतिरिक्त प्रयास के तहत कुछ ही दिनों के भीतर दलितों के उपनयन संस्कार का कार्यक्रम आयोजित किया तथा कुछ दलित जोड़ो का वैदिक रीति से विवाह संपन्न कराया. दरअसल बाबासाहब का दलितों से हिन्दू धर्म के कर्मकांडो का करवाना एक एक्सपेरिमेंट था जिसके माध्यम से दलितों को यह दीखाना चाहते थे की मंदिर जाने या पूजा-पाठ कर लेने और जनेऊ पहनने से कभी दलित सम्मान नहीं पा सकते उलटे वे हिन्दू धर्म की दलदल में ही फसेंगे. बाबासाहब यह स्पष्ट रूप से समझ चुके थे कि दलितों को हिन्दू धर्म ने इंसान ही नहीं समझा है इसलिए दलितों की सम्पूर्ण मुक्ति हिन्दू धर्म के सम्पूर्ण त्याग से ही होगी. 13 अक्टूबर 1935 को उन्होंने येओला में घोषणा कि-
“मुझे खेद है कि मैने हिन्दू धर्म में जन्म लिया पर में हिन्दू रहकर मरूँगा नहीं”.
इस घोषणा ने तो मानो देश में भूचाल ला दिया जातीय हिन्दुओ की जड़े हिल गयी और वे बाबासाहब से अपने निर्णय को बदले का आह्वान करने लगे पर बाबासाहब अपने निर्णय पर अडिग रहे हाँ उन्होंने हिन्दुओं को दलितों के प्रति उनका व्यवहार बदलने के लिए भरपूर समय दिया और उन्होंने यह समय उपयुक्त धर्म के चयन और उसके गहराई से अध्ययन के लिए लगाया.
अब बाबासाहब ने यह समय दलितों को उनके राजनीतिक और सार्वजनिक अधिकारों के लिए लगाया उनके द्वारा स्थापति इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने भी अच्छा-खासा प्रदर्शन किया. दलितओ के लिए राजनीतिक दर्शन के लिए उनकी स्पष्ट राय थी कि‘दलितों के दो दुश्मन हैं ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद क्योंकि दोनों ही समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना के विपरीत हैं’.

गौरतलब है की जब डॉ आंबेडकर राष्ट्र के विकास में पूरी तरह समर्पित थे तब भी जातीय हिन्दुओं की उनसे घृणा कुछ कम नहीं हुई थी आश्चर्य की बात है की जब डॉ आंबेडकर ने दामोदर घाटी परियोजना की तैयारी कर रहे थे तब एक इंजिनियर उनके साथ काम करने से केवल इसलिए मना कर दिया था की वह दलित के निर्देशन में काम नहीं करना चाहता था. बाबासाहब को जब यह बात पता चली तो उन्होंने बिना कोई गुस्सा किये उस इंजिनियर से बात करके उसे बताया कि उन्होंने ‘जो जिम्मेदारी उसे दी है यदि वह चाहते तो किसी विदेशी इंजिनियर को भी दे सकते थे, पर चूँकि यह भारत के विकास का कार्य है इसलिए उनकी इच्छा इसमें भारतीयों को ही भागीदार बनाना है.’ उस इंजिनीयर ने जब बाबासाहब से यह सुना तो वह बहुत लज्जित हो गया और उसने उनसे माफ़ी मांगकर पूरे मन से अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकारी.
स्पष्ट है कि बाबासाहब के मन में राष्ट्र प्रेम कूट-कूट कर भरा था और वे स्वभाव से इतने कोमल थे कि उनके विरोधियो के लिए भी कभी स्थायी रूप से द्वेष नहीं रखते थे. उनके लिए मानवता और राष्ट्रहित सर्वोपरि थे. दलितों को संगठित करना और उन्हें उनके अधिकार के लिए जागरूक करना उनकी इसी सोच का परिणाम था.
इसके बाद ही भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता का समय आया और श्री जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ. इस समय देश को स्वंत्र रूप से संचालित करने के लिए अपने संविधान की ज़रूरत थी. यह अपने आप में एक कठिन और महत्वपूर्ण कार्य था. पंडित नेहरु इसके लिए किसी विदेशी को ज़िम्मेदारी देने का मन बना चुके थे तभी उन्हें गांधीजी से डॉ आंबेडकर के नाम का सुझाव मिला जिसे डॉ आंबेडकर की काबिलियत देखते हुए सहर्ष स्वीकार लिया और बाबासाहब को अपने मंत्रिमंडल में कानून मंत्री के रूप में शामिल कर लिया.
डॉ आंबेडकर ने बड़े कठोर श्रम और जज्बे से संविधान को लिखने की ज़िम्मेदारी निभाई हालाँकि संविधान निर्माण के लिए एक टीम थी पर उनके निष्क्रिय होने से सारा भर बाबासाहब पर ही था. इसकी पुष्टि संसद में टी टी कृष्णामचारी के संसद में दिए बयान से बखूबी होती है कि-
“सदन शायद इस बात से अवगत होगा कि (संविधान निर्माण समिति में) आपके चुने हुए सात सदस्यों में एक ने इस्तीफा दे दिया उसकी जगह खाली ही रही. एक सदस्य की मृत्यु हो गयी उसकी जगह भी रिक्त ही रही. एक अमरीका चले गए और उनकी जगह भी खाली ही रही. चोथे सदस्य रियासतदारों-सम्बन्धी कामकाज में व्यस्त रहे, इसलिए वे सदस्य होकर भी नहीं के बराबर ही थे. दो-एक सदस्य दिल्ली से दूरी पर थे और उनका स्वाथ्य बिगडने से वे भी उपस्थित नहीं हो सके. आखिर यह हुआ कि संविधान बनाने का सारा बोझ अकेले डॉ आंबेडकर पर ही पड गया. इस स्थिति में उन्होंने जिस पद्धति से काम किया उसके लिए वे निसंदेह आदर के पात्र है. मैं निश्चय के साथ बताना चाहूँगा कि जिस परेशानी के साथ जूझते हुए डॉ आंबेडकर ने यह कार्य किया है उसके लिए हम हमेशा उनके ऋणी रहेंगे” .
बाबासाहब ने संविधान को देश में समता और स्वतंत्रता स्थापित करने का एक कानूनी माध्यम के रूप में स्थापित किया और इसके द्वारा देश से छूआछूत, जातिवाद, लिंगभेद और वर्गभेद सहित तमाम विषमताओं का खात्मा कर दिया पर वे भली भांति जानते थे की कानून से सिर्फ किसी अपराध को नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन किसी विचार को नहीं क्योंकि किसी भी विचार के विस्तार में सिर्फ शोषक वर्ग की ही भूमिका नहीं होती बल्कि शोषित भी उतना ही ज़िम्म्मेदार होता है क्योंकि वह उस मान्यता को सच और नित्य मानते हुए स्वयं ढोता है. भारत में व्याप्त जाति प्रथा इसका एक बेहतरीन उदहारण है जिसे जातीय हिन्दू वर्ग सदियों से चल रही मान्यता के अनुसार मानता चला आ रहा है और उसे दलितों और महिलाओं का शोषण करने में इसी मान्यता के कारण कोई हिचक नहीं होती वहीँ दलित वर्ग भी हिन्दू धर्म की शिक्षा में डूबकर जातिवाद के अन्याय को सहर्ष स्वीकार करते हुए इस पूर्वजन्म के बुरे कर्मो का फल मानते हुए अपनी स्थिति में परिवर्तन नहीं चाहता है और खुद भी बिना किसी दबाव के गुलाम ही रहना चाहता है.
जाहिर है कि दोनों ही ओर से इस अमानवीय व्यवस्था को केवल धर्म का लिखा मानकर ही शास्वत माना जाता है भले ही देश का संविधान इस प्रथा की इजाज़त नहीं देता. ऐसे में इस मान्यता को तोड़ने का एकमात्र हल लोगो की सोच बदलने से ही संभव है पर भारतीयों की सोच का आधार केवल हिन्दू धर्म ही है इसलिए अंततः बाबासाहेब ने हिन्दू धर्म को सार्वजानिक रूप से त्यागने का एलान किया. पर गलत चीज़ को त्यागना ही काफी नहीं होता बल्कि उसके बाद सभी चीज़ को अपनाना भी उतना ही ज़रूरी होता है इसलिए बाबासाहब ने अपने लाखों समर्थकों के साथ 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में हिन्दू धर्म को त्यागते हुए बौद्ध धम्म स्वीकारा.
उनका स्पष्ट कहना था की उन्हें “बुद्ध का धम्म बहुत प्रिय है क्योंकि यह उन तीन सिद्धांतो को मानता है जिसका बाकि धर्मो को ईश्वर, आत्मा और मृत्यु के बाद का जीवन के जीवन की चिंता होती है. जबकि बौद्ध धर्म में प्रज्ञा( अंधविश्वास और झूठी मान्यताओ के खिलाफ समझ), करुणा अर्थात प्रेम और समता अर्थात समानता की शिक्षा है. मनुष्य के अच्छे और सुखी जीवन के लिए केवल इन सिद्धांतो की ही ज़रूरत है जो मुझे पसंद आते है और दुनिया को भी. क्योंकि समाज को न तो इश्वर बच सकता है न आत्मा.”
बाबासाहब द्वारा लाखो लोगो के साथ बौद्ध धर्म अपनाना एक एतिहासिक घटना थी जिसे याद करते हुए आज भी प्रति वर्ष लाखों लोग अक्टुबर के महीने में नागपुर इकठ्ठा होते है.
बाबासाहब धर्मांतरण को सम्पूर्ण भारत में फैलाना चाहते थे क्योंकि जातिवाद, लिंगभेद और अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाने के धर्मान्तरण के अलावा अन्य रास्ता नहीं है. नागपुर के बाद उन्होंने चंद्रपुर में भी सामूहिक धर्मान्तरण सम्पादित किया और अगले चरण के रूप में उत्तरप्रदेश के आगरा में विशाल धर्मान्तरण करवाना चाहते थे पर इससे पहले कि वे इस मुहीम को आगे बढ़ा पाते 6 दिसम्बर 1956 को उनकी मृत्यु हो गयी.
अब बाबासाहेब के इस कारवें को आगे बढाने की पूरी ज़िम्मेदारी हम युवाओं की है.
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